Category: पहला कदम
ग्रंथ
छह ढ़ालादि की शुरुवात नरक के वर्णनों से क्यों ? नीचे से ऊपर प्रगति का प्रतीक होता है। (कहा है…भीति से प्रीति, यहाँ धर्म से)
आहारक ऋद्धि
आहारक ऋद्धि में आहारक कर्म का बंध/ उदय होता है। अन्य ऋद्धियों में तप से विशेष शक्तियाँ आतीं हैं। 48/64 ऋद्धियों में आहारक ऋद्धि नहीं
उपांग
उपांग में उँगली, नाक, कानादि के अलावा अंतरंग अवयव भी आते हैं, जैसे हृदय, आँख की अंतरंग रचना आदि। निर्यापक मुनि श्री वीरसागर जी
नय
नय दो प्रकार का है – 1. दुर्नय… मेरा दृष्टिकोण ही सही है। 2. सुनय… यह मेरा दृष्टिकोण है (सही का आग्रह नहीं)। क्षु.श्री जिनेन्द्र
पर्याय
पर्याय का ज्ञान होना बाधक नहीं है, पर्याय में मूढ़ता का आ जाना बाधक है। आचार्य श्री विद्यासागर जी
परिषह-जय
परिषह = सब ओर से, प्रतिकूलता परिषह-जय – सब ओर से सहना, प्रतिकूल परिस्थितियों में अनुकूल महसूस करना। इससे कर्मों का संवर और निर्जरा होती
परनिंदा
परनिंदा आदि से नीच गोत्रकर्म में विशेष अनुभाग पड़ता है, बाकी 6 कर्मों में प्रदेश बंध होता है।
मूलवर्ण
64 मूलवर्ण = 33 व्यंजन (i) + 27 स्वर (ii) + 4 योगवाह (iii) ये अधिक से अधिक संख्यायें हैं। ये सब भाषाओं में होते
श्रुत के भेद
1) अर्थाक्षर, पद….पूर्व आदि 9 भेद। 1, 1, अक्षर वृद्धि से अक्षर-समासादि 9 भेद। कुल 18 भेद – द्रव्य श्रुत शास्त्र रूप (अक्षरात्मक ज्ञान) के।
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