Category: पहला कदम
दर्शन / ज्ञान
दर्शन में विकल्प नहीं क्योंकि यह सामान्य आभास है (इसमें सम्यक्त्व/ मिथ्यात्व नहीं)। ज्ञान में विकल्प है (सम्यक्त्व/ मिथ्यात्व भी है)। मुनि श्री प्रमाणसागर जी
पूज्यनीय / दर्शनीय
ऐसी प्रतिमाएँ जो थोड़े समय के लिये जिनमुद्रा में/ बिना श्रृंगार के रहतीं हैं, दर्शनीय तो हो सकतीं हैं, पूज्यनीय नहीं/ सम्यग्दर्शन की प्राप्ति में
कुल / जाति
एक से चार इन्द्रियों तक नर/ मादा नहीं तो उत्पत्ति कैसे ? कुल व जाति के परमाणुओं के मिलने से। निर्यापक मुनि श्री सुधासागर जी
अजीव / पुद्गल
पुद्गल को अजीव में इसलिए रखा क्योंकि इसमें भी अजीवत्व पाया जाता है। चार विशेष गुणों वाला होने से पुद्गल कहा। निर्यापक मुनि श्री सुधासागर
दिगम्बरत्व
जो भेष/ परिधान दूसरों के लिये, उससे अपना भला कैसे होगा ! दिगम्बरत्व अपना, उससे अपना भला/ कल्याण अवश्य होगा(दूसरों का भी)। निर्यापक मुनि श्री
सम्यग्दर्शन
1. भेद – I. क्षायिक सम्यग्दर्शन II. क्षयोपशमिक सम्यग्दर्शन III. औपशमिक सम्यग्दर्शन 2. सराग, वीतराग इनका आपस में सम्बन्ध ? सराग तीनों भेदों में लगेगा,
ब्रह्मचर्य
अनादि काल से इंद्रियों/ मन में उलझे हैं; क्रोध ने अंधा, मान ने बहरा, मायाचारी ने अविश्वासी, लोभ ने बेशर्म बना दिया है। पर से
उत्तम ब्रह्मचर्य-धर्म
ब्रह्म भाव निज भाव है, देह भाव भव भाव। निज में ही जो नित रमें, ब्रह्मचर्य सुख छाँव। मुनि श्री प्रणम्य सागर जी
उत्तम आकिंचन्य -धर्म
मुनिराजों को भय नहीं होता क्योंकि भय तो परिग्रह तथा परिजनों के कारण होता है, जिनका पूर्ण त्याग होता है। इसलिए उनके आकिंचन्य धर्म की
उत्तम त्याग-धर्म
उत्तम त्याग, अनुत्तम(विभावों) का, ग्रहण उत्तम(स्वभाव) का। अपाय(उपाय) विचय का अर्थ एक आचार्य ने त्याग(बुराई का) बताया है। ———————————————– लब्धि में जितना भोग/ धन है,
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