Category: पहला कदम

उपयोग

वस्तु के निमित्त से जीव के देखने जानने के भाव को उपयोग कहते हैं। 1. दर्शनोपयोग – अनाकार, सामान्य, निर्विकल्प 2. ज्ञानोपयोग – साकार, विशेष,

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प्रवीचार

16 स्वर्ग के ऊपर की विशुद्धि 16 स्वर्गों से ज्यादा होती है। 16वें स्वर्ग में प्रवीचार मन से होता है, इसलिए इसके ऊपर मन से

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अशुभ से शुभ

अशुभ निमित्तों को देखो मत, दिख जाऐं तो बारह-भावना आदि रुपी मशीनों में डाल दो जैसे संसार, अशुचि, संवर की मशीनों में। Output शुभ निकलेगा।

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व्यवहार / निश्चय

व्यवहार में निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध होता है। निश्चय में उपादान की प्रधानता। निर्यापक मुनि श्री सुधासागर जी

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देवों के श्रुतज्ञान

देवों के पूर्ण श्रुतज्ञान (द्रव्य) हो सकता है। पर भाव श्रुतज्ञान नहीं होता। निर्यापक मुनि श्री सुधासागर जी यदि भावश्रुत भी होता तो वे श्रुतकेवली

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अभव्य / अभव्य समान भव्य

अभव्य…. एक इन्द्रिय से पाँच इन्द्रिय तक। अभव्य समान भव्य…. एक इन्द्रिय ही। मुनि श्री प्रणम्यसागर जी (तत्त्वार्थसूत्र- 2/19)

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बंधन / संघात

बंधन….बूंदी के लड्डू को हलके हाथ से बांधना। संघात….बूंदी के लड्डू को कसके बांधना। आचार्य श्री विद्यासागर जी

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व्रत

व्रत में उपवासादि तप है तथा पूजा/ विधान भक्ति, बाह्य रूप है। ध्यान/ सामायिक/ चिंतन अंतरंग रूप है। मुनि श्री प्रणम्यसागर जी

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पुरुषार्थ

पुरुषार्थ = पुरुष का इच्छापूर्वक कार्य, चेतनात्मक। पुरुषार्थ जड़ में भी होता है, जैसे भाप के निकलने का प्रयास, जड़ात्मक। क्षु.श्री जिनेन्द्र वर्णी जी

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मंगल आशीष

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