Category: पहला कदम
उतावली
वैरागी कभी उतावली नहीं करता। मोक्ष जाने को “धावत” नहीं, “गच्छति” कहा है। मोक्ष में वैरागी भाव नहीं। वैरागी का आनंद तो पकते आम जैसा
अर्हम्
अर्हंत् रूप है। पूजा तथा भक्ति में एवं बीजाक्षर के रूप में, ध्यान में भी प्रयोग किया जाता है। मुनि श्री सुधासागर जी
अतिथि संविभाग
अतिथि संविभाग में जैसे अपने लिये बनाये गये भोजन में से अतिथि को उचित भाग देते हैं, वैसे ही ज्ञान अपने लिये अर्जित करके उसमें
कल्प-काल
कल्प-काल की शुरुवात अवसर्पिणी से होती है। उत्सर्पिणी में तो काल उल्टे चलते हैं। मुनि श्री सुधासागर जी
सोहम्
सोहम् भविष्य की अपेक्षा। “हम” वर्तमान की अपेक्षा, पर सावधान “अहम्” आ सकता है। मुनि श्री सुधासागर जी
निमित्त
दीपक में घी बाती होते हुये भी बिना माचिस के प्रकाशित नहीं। प्रारम्भिक सम्यग्दर्शन गुरु के बिना नहीं, अंतिम सम्यग्दर्शन (क्षायिक) केवली पादमूल के बिना
अवगाहना
अवगाहना = देह कितना स्थान/आकाश के प्रदेशों को घेर रही है। मुनि श्री प्रणम्यसागर जी
अनंतानुबंधी
अनंतानुबंधी कषाय उनके, जो उन वस्तुओं को पाने के भाव रखते हैं जो उनकी है नहीं, थी नहीं, कभी होगी भी नहीं, जिसकी है वह
ब्रम्हचर्य
सम्मूर्च्छन जीवों की हिंसा से ब्रम्हचर्य के द्वारा बहुत हद तक बच जाते हैं। मुनि श्री प्रणम्यसागर जी
अरहंत के ध्यान व लेश्या
अरहंत के ध्यान व लेश्या उपचार से कहे हैं। क्योंकि ध्यान तो मन से एकाग्रचित्त होने को कहा, पर मन(भाव) है नहीं तथा एकाग्रचित्त हो
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