Category: पहला कदम
गुण प्राप्ति
बंदे तद् गुण लब्धये । पत्थर, पेड़, डाकू, साधु, रागी या वीतरागी, जिसे भी ध्याओगे/ पूजोगे, उसी के जैसे गुण आयेंगे, अंत में वही बनोगे
आत्मा/ शरीर/ कर्म
आत्मा अमूर्तिक/शुद्ध। शरीर और उसकी क्रियायें मूर्तिक/अशुद्ध। इनमें सम्बंध कर्म के माध्यम से, कर्म ही शरीर के योग्य वर्गणाओं को खींचता है, शरीर बनाता है,
सम्यग्दर्शन / सम्यग्ज्ञान
सम्यग्दर्शन—“अ” ऐसा ही बनता है। कैसे जाना ? शिक्षक ने बताया; ज्ञान/प्राम्भिक दशा। बाद में “अ” ऐसा ही होता है— सम्यग्ज्ञान/अंतिम दशा । मन में
यत्नाचार
पुण्यहीन और पुण्यवान का यत्नाचार अलग-अलग होता है… जैसे कुछ आकर्षक देखना चाहते हो… तो पुण्यवान तय करे— किसकी आँख देखना चाहती है! उसको देखने
स्वभाव / विकार
स्वभाव – 1) प्रेम/दया आदि राग सहित होता है। 2) निर्विकार/वीतराग – राग रहित होता है। विकार – आकर्षक चीजों के प्रति स्वामित्व भाव आना।
मुनिपद और प्रभुदर्शन
मुनियों ने आचार्य श्री विद्यासागर जी से पूछा… अष्टापद की यात्रा करने जा सकते हैं? आचार्य श्री – क्यों मुनि चर्या से श्रद्धा उठ गयी
क्षमा
कषाय की समय-सीमा होती है; क्षमा की नहीं, क्योंकि क्षमा तो आत्मा का स्वभाव है। इसीलिये पार्श्वनाथ भगवान का जीव 10 भवों तक कमठ के
मर्यादा
जिन वस्तुओं की मर्यादा दिनों में है, क्या उनका दिन 24 घंटे का मानें ? वैसे तो आगम में इसका खुलासा नहीं दिया है पर
सम्बंध
1. प्राकृतिक – माता-पिता/बेटे-बेटी के 2. सम्पादित – दोस्ती/शादी-पति/पत्नि धर्म में दोनों उपादेय नहीं । 3. त्रैकालिक – वांछनीय मुनि श्री महासागर जी
वस्त्र और ज्ञान
वस्त्र से निरावरण हुए बिना, ज्ञान भी निरावृत नहीं हो सकता है । आचार्य श्री विद्यासागर जी
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