Category: पहला कदम

लोक

जैन दर्शन में लोक, जीव तथा अजीव से मिलकर बना है (जीवमजीवं दव्वं – द्रव्य संग्रह)। विज्ञान भी यही मानता है बस नाम देता है

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सल्लेखना

योद्धा दुश्मन को जीतने के लिये तन, मन, वचन सब लगाकर जीत तो लेता है पर उसका इहभव और परभव द्वेषपूर्ण होते हैं। क्षपक सब

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संस्कार

संस्कार बुरे भी होते हैं। अवगुण बढ़ने को वर्धमान कह सकते हैं पर आत्मकल्याण के परिप्रेक्ष्य में हीयमान ही कहेंगे। मुनि श्री मंगल सागर जी

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एकत्व

जीव अकेला ही कर्म करता है और अकेला ही संसार में हिंडोले की तरह भ्रमण करता रहता है। अकेला ही पैदा होता है, अकेला ही

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अनुयोग

बनती हैं भूमिकायें – प्रथमानुयोग से, आतीं हैं योग्यतायें – करुणानुयोग से, तब पकती पात्रतायें – चरणानुयोग से, फिर आत्मा झलकती – द्रव्यानुयोग से। मुनि

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अशुद्ध आत्मा

अशुद्ध आत्मा तो अजीव से भी बदतर! अजीव तो अपने स्वभाव/ गुणों को बनाये रखते हैं। अशुद्ध आत्मा स्वभाव/ गुणों का घात कर देती है।

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मंत्र

मंत्र का एक अक्षर कम/ ज्यादा/ गलत होने से सिद्धि नहीं होती लेकिन अंजन चोर को तो णमोकार मंत्र आता ही नहीं था,उसे कैसे सिद्धि

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ऊर्जा

देवता थोड़ा सा ग्रहण करके लम्बी अवधि तक शरीर को चलाते हैं, भगवान बिना खाने पिये वातावरण से नोकर्म वर्गणायें ग्रहण करके। मनुष्य/ तिर्यंच थोड़ी

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शरीर परिग्रह

ऊपर-ऊपर के देवों में शरीर तथा परिग्रह हीन होते जाते है (तत्त्वार्थ सूत्र – 4/21)। उसमें परिग्रह से पहले शरीर लिया। कारण ? 1. शरीर

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पाप

पाप तो बुरा ही है → निश्चय से, सापेक्षत: भी बुरा है → व्यवहार से। चिंतन

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मंगल आशीष

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September 28, 2024

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