Category: पहला कदम
चारित्र का बहुमान
क्या आचार्य श्री ज्ञानसागर जी ने ब्रह्मचारी अवस्था में अपने दीक्षा-गुरु आचार्य श्री वीर सागर जी को पढ़ाया था । आचार्य ज्ञानसागर जी से जब
अनंतानुबंधी
घर में गमी हो जाने पर, पहले त्यौहार पर मिठाई खिलाने समाज वाले आते हैं क्योंकि गम/दु:ख 6 माह से ज्यादा नहीं चलना चाहिये वरना
श्रमण / श्रावक
पंचमकाल में श्रमण और श्रावक दोनों ही 16 स्वर्ग तक ही जा सकते हैं, तो श्रमण बनकर इतना कष्ट क्यों सहा जाय ? श्रमण स्वर्ग
तप
इच्छा निरोध: तप: मंदिर जाने की इच्छा का निरोध कर रहे हों तो ? निवृत्ति को तप कहें ? वैयावृत्ति को ? सो सही परिभाषा
मोक्षमार्ग
मोक्षमार्ग पर अपने को मज़बूत/सुरक्षित किया जाता है जैसे सुकोशल मुनिराज ने शेर को रोका नहीं (ऋद्धियाँ होने के बावजूद) बल्कि अपने उपयोग को अंदर
देव-दर्शन
मूर्ति के दर्शन को प्रत्यक्ष कहेंगे या परोक्ष ? वैसे तो देव-दर्शन मति/श्रुत ज्ञान का विषय है, इसलिये परोक्ष हुआ । लेकिन यदि मूर्ति में
स्व-भाव/स्वभाव
स्व-भाव स्वभाव नहीं, स्व-भाव औदायिक भी, पाप/कषाय रूप भी हो सकता है, पर स्वभाव नहीं । मुनि श्री सुधासागर जी
दान-तीर्थ
दान-तीर्थ बनने (राजा श्रेयांस के द्वारा) के बाद धर्म-तीर्थ की स्थापना हुई । जिस दिन दान-तीर्थ समाप्त हो जायेगा (पंचम-काल के अंत में), उसी दिन
कर्म-बंध
कर्म-बंध से बचने के दो उपाय – 1. समता-भाव – मुझमें और छुद्र जीव (कोरोनादि) में क्या फ़र्क ! 2. भेद-विज्ञान – मैं तो जीव
स्वप्न
मैंने स्वप्न में “स्व” “पन” देखा । (हरेक “पर” वस्तु में “स्व” को देखें जैसे दर्पण में देखते हैं) आचार्य श्री विद्यासागर जी
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