Category: पहला कदम
मरण के बाद
मरण के बाद शव के न तो पैर छूने चाहिए, ना ही परिक्रमा देनी चाहिए और सुहागन का श्रृंगार भी नहीं करना चाहिए। निर्यापक मुनि
भोजन
तीव्र लालसा/ गृद्धता से ग्रसित ही अमर्यादित भोजन करते हैं। इसमें मांसाहार का दोष लगता है। जहाँ सामिष भोजन बनता हो, वहाँ दोष रहित रह
प्रतिमा / आहार
7 प्रतिमा तथा अधिक को आहार के लिये – “आहार जल शुद्ध है, कृपया भोजन ग्रहण करें” कहें। पर “मन, वचन, काय शुद्ध है”, नहीं
संक्लेष / ज्ञानावरण
अच्छी याददाश्त तथा शुभ-कर्मबंध संक्लेष के अभाव में होता है। याददाश्त के लिये ज्ञानावरण का क्षयोपशम भी जरूरी रहता है। निर्यापक मुनि श्री सुधासागर जी
देशावधि की सीमा
1. देशावधि की जघन्य सीमा – मनुष्य/ तिर्यंचों/ नारकियों में- 1 कोस, देवों में – 25 योजन। 2. उत्कृष्ट, महाव्रतियों की (लोकाकाश)। मुनि श्री प्रणम्यसागर
परीक्षा/आज्ञा प्रधानी
सिर्फ परीक्षा-प्रधानी के द्वारा अवहेलना की संभावना, सिर्फ आज्ञा-प्रधानी के द्वारा अंधविश्वासी होने की संभावना। जैन-दर्शन पहले परीक्षा फिर आज्ञा मानता है। परीक्षा के बाद
आहारक शरीर
जब मार्णांतिक समुद्धात ढ़ाई द्वीप के बाहर भी होता है तो आहारक शरीर क्यों नहीं जाता ? जहाँ तक मनुष्य जा सकता, वहीं तक मुनिराज
पूजा
पूज्यं जिनं त्वाऽर्चयतो जनस्य,सावद्य-लेशो बहु-पुण्य-राशौ। दोषाय नालं कणिका विषस्य,न दूषिका शीत-शिवाम्बु-राशौ ॥58॥ (आचार्य समंतभद्र कृत स्वयंभूस्तोत्र) विष की कणिका सुधाकर में अमृत बन जाती है।
संहनन
प्रवचनादि सुनते समय भी चक्रवर्ती जैसी सुख सुविधा सजा कर बैठते हो, तभी तो चक्रवर्ती के चक्र (पंखे) चलाकर बैठते हो। तब चक्रवर्ती जैसा संहनन
ज्ञानों के काल
मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय अपने विषयों में वे अन्तर्मुहूर्त (वह भी कम समय का) तक ही बने रहते हैं। फिर ज्ञानोपयोग बदल जाता है या
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