Category: पहला कदम
सम्यग्दर्शन का निमित्त
1. स्थावर जीवों की संख्या → लोक प्रमाणादि में गुणा करके महाराशि बना कर उसमें से एक कम करते हैं। 2. सबसे ज्यादा वायुकायिक जीव,
सत्य-योग
सत्य-मन = सत्य-भावरूप मन। सत्य-भाव होगा सत्य-पदार्थ को जानने से, उसके चिंतन से। जब सत्य-मन होगा, उसी से सत्य-योग होगा। मुनि श्री प्रणम्यसागर जी (जीवकांड–गाथा
भावकर्म
भावकर्म = रागद्वेष आदि। “आदि” में योग भी लेना क्योंकि योग भी रागद्वेष की तरह कर्मबंध में कारण है। आचार्य श्री विद्यासागर जी
योग
योग भीतरी वस्तु है पर होता है बाह्य निमित्तों से। मुनि श्री प्रणम्यसागर जी
वर्गणायें
सत्य/असत्य, उभय/अनुभय वर्गणायें अलग-अलग होतीं हैं। मुनि श्री प्रणम्यसागर जी (जीवकांड–गाथा – 217)
शुक्लध्यान
दूसरे शुक्लध्यान से १२वें गुणस्थान(के अंत में) औदारिक शरीर का अभाव तथा परम औदारिक शरीर का प्रादुर्भाव होता है। इसके अंतर्मुहूर्त काल के प्रत्येक समय
सम्यग्दर्शन
सम्यग्दर्शन/ मिथ्यादर्शन, भव्यता/ अभव्यता हमारे क्षयोपशमिक-ज्ञान का विषय नहीं हैं। आचार्य श्री विद्यासागर जी
अनुभय-वचन
अनुभय-वचन विकलेंद्रियों के तथा संज्ञी के आमंत्रणादि रूप में होते हैं। विकलेंद्रियों के वचन तो हैं पर हमें समझ नहीं आते/ अर्थक्रिया पकड़ में नहीं
श्रावक / श्रमण
श्रावक चाहे क्षायिक-सम्यग्दृष्टि हो, तीर्थंकर प्रकृति का बंध कर चुका हो या विद्याएँ सिद्ध कर चुका हो; और भले ही उस श्रमण के पास, जिसको
सम्यग्ज्ञान
जिस पदार्थ की जो उपयोगिता है उसे उसी रूप जानना: यह सम्यग्ज्ञान की “अर्थ-क्रिया” है; पदार्थ की प्रयोजनीयता है, जैसे कि घड़े की पानी जमा
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