Category: पहला कदम
निगोद
साधारण नामकर्म के उदय से निगोद (नि = नियम से + गोद = क्षेत्र), अर्थात् जिस क्षेत्र में नियम से अनंत जीवों का वास हो
उत्कर्षण
उत्कर्षण नीचे के निषकों के परमाणुओं को उपांतरित* (ऊपर के) निषेकों में मिलाने को कहते है। अपकर्षण उसका विपरीत। मुनि श्री प्रणम्यसागर जी *संशोधित
अनुयोग
प्रथमानुयोग पाप से डरा कर भय की सीमारेखा खींच देता है; पुण्य कार्यों के प्रति आकृष्ट करता है। करणानुयोग कर्म सिद्धांत बताकर नियमों में बांध
अपूर्व/अधः करण
अपूर्वकरण में अधःकरण की तुलना से – 1. परिणामों की संख्या ज्यादा है। 2. समय कम है (यदि 8 तो अधःकरण में 16)। 3. चय
परीषह-जय
छोटे-छोटे संघ बना-बना कर सब पुराने मुनियों को आचार्य श्री विद्यासागर जी अलग-अलग जगहों पर भेज रहे थे। उन्होंने अपने पास चार नवदीक्षित मुनि ही
नारकियों का कल्याण
तीर्थंकर नारकियों का कल्याण कैसे करते हैं ? 1. जातिस्मरण से भगवान के वचनों को याद/ पश्चाताप करके। 2. तीसरे नरक तक देवों द्वारा भी
स्वर्ग / नरक
सम्यग्दृष्टि को स्वर्ग/ नरक में फर्क नहीं लगता…. स्वर्ग में राग व हास्य नोकषाय, नरक में द्वेष व शोक नोकषाय रहती हैं। (सम्यग्दृष्टि को तो
जघन्य अवगाहना
सूक्ष्म अपर्याप्त निगोदिया की जन्म से तीसरे समय की, अंगुल के असंख्यातवाँ भाग (घनांगुल, किसी के हाथ का अंगुल नहीं, 8 अणु आदि से बढ़ते-बढ़ते
मिध्यात्व के 3 टुकड़े
मिध्यात्व के 3 टुकड़े कब होते हैं ? इस बारे में दो मत हैं…. मुख्य/गौण की अपेक्षा…. 1. करण (परिणाम) की विवक्षा → करण ने
अनियत
समयसार द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की नियत को नहीं स्वीकारता ऐसे ही मुनि, पुण्योदय से माता-पिता मिले छोड़ दिये। हाँ ! Indirect बड़ा फल मिलता
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